कुछ खुरदरी सी लहरें हैं ये,
कुछ लड़ती हुयी इनसे कश्ती ये,
साहिल की ख़्वाहिश लिए,
कभी साथी थी इसकी हवाएँ ख़ुशगवार,
कभी धोखे से जिन्होंने चाहा डुबाना,
एक झलक में रंग बदलते नाक़िस बादल,
ना जाने क्या था उस कश्ती में,
कुछ ने कहा इसकी लकड़ी है बेबाक़,
या शायद इसका कारीगर था कलाकार,
तभी तो यह कश्ती है आज तक बुलंद,
कश्ती सुन रही थी सब कुछ,
चुप थी,
शायद उसे भी पता था,
वो नहीं है लकड़ी या कारीगर जिसकी बदौलत वो है,
अंदर या बाहर,
यहाँ, वहाँ, सारा जहाँ,
फ़ौलाद लहू बनकर जब बहता है,
निसार करके ख़ुद को जब,
साहिल की ओर बढ़ते हैं क़दम,
क्या मजाल है किसी मक्कार फ़िज़ा की,
या समंदर आबाद,
डूबा दे हस्ती को मेरी,
लकड़ी तो फिर मिट जाती है मिट्टी में,
यह फ़ौलाद ही है जो सदियों मेरा हफ़ज़ा होगा..
Very wonderfully written.
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Thank you 😊
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