रोज़ लड़ता हूँ मैं

की रोज़ लड़ता हूँ मैं,

बादलों से जैसे कुछ फुस फूसा कर,

लड़ता है सूरज जागने को,

की रोशनी से उसकी आस जुड़ी है कइयों की,

की उम्मीद है रोशनी और धूप करवटें,

की रोज़ लड़ता हूँ मैं,

बाँधों से जैसे गुज़ारिश कर,

झटपटाती है नदी बहने को,

की पानी उसका जीवनदायी है,

की बहना ईमान है उसका और छोर साथी,

की रोज़ लड़ता हूँ मैं,

अफ़सोस से जैसे हंस कर,

मुबाहिस करती है उम्मीद,

की सच से परे है,

की सादगी उसकी आज की नहीं और मज़हब उसका आसमानी है,

की रोज़ लड़ता हूँ मैं,

आशाएँ जैसे काँप कर,

उखेलती हैं चंद साँसों के लिए,

की कब कोई हक़ीक़त गला घोंट दे उसका,

की कब कोई बेबसी दफ़्न कर दे उसे,

किसी बेनामी ताबूत मैं,

और भूल जाए उसे,

क़यामत या उसके बाद भी,

की रोज़ लड़ता हूँ मैं,

शायद लड़ना ही धर्म है मेरा,

फिर चाहे ये वक़्त हो या तक़दीर मेरी,

याद नहीं की कब सोया था,

की पता था लड़ना अभी नहीं है,

कान, नाक, आँखें, बाज़ुएँ, ये चर्म मेरी सब साक्षी हैं,

की रोज़ लड़ता हूँ मैं,

की कई जंग दिखती हैं,

की कुछ बस अंदर ही रह जाती हैं….।।।

One thought on “रोज़ लड़ता हूँ मैं

Leave a comment